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बचपना

कभी बचपन में ट्राई किया था की मम्मी को “मॉम” और पापा को “डैड” कहूँ। छटी की अंग्रेज़ी वाली किताब के सभी पात्र अपने माता पिता को यही बुलाते थे। लेकिन हमसे कभी हो नहीं पाया। ऐसा उस वक़्त की तमाम चीज़ों के साथ था। टीचर के सुझाव पर घर में सबसे अंग्रेज़ी में बात करना, फ़िल्मों की तरह अपना ख़ुद का एक कमरा होना जिसके दरवाज़े पे “नो एंट्री” लिखा हो और कमरे की दीवारों पर टेर्मिनेटर के पोस्टर।

ये वो दौर था जब लड़कियाँ पसंद तो आती थी लेकिन उनके फ़िगर से नहीं बल्कि रिपोर्ट कार्ड से। और जीवन की सारी विद्या उस डेढ़ किलोमीटर के रास्ते से सीखते थे जो स्कूल से घर लौटते वक़्त साथ रहता था। 1 रुपय का खट्टा वाला चूरन घिसते चीख़ते चिल्लाते जाते थे और घर पहुँचने से पहले ही शर्ट अंदर और टाई काएदे में आ जाती थी। क्यूँकि वहाँ भले ही चार पिरीयड मुर्ग़ा बने हों मोहल्ले में अपनी इज़्ज़त थी।

एक मैदान था लेकिन दिक़्क़त थी कि एक ही मैदान था। अब क्रिकेट हो या कँचा सब वहीं होना है। लेकिन दिक़्क़त ये थी की छोटे होने के कारण साले फ़ील्डिंग करवाते थे पर बैटिंग नहीं देते थे और कँचा खेलते मिल गए तो बाप की सुताई का जोखिम लेने में फटती थी। अंत में घुमा फिराकर या तो दूसरे मोहल्ले में जाकर पतंग लूटो या घर बैठ के मारीओ या वही अर्नोल्ड चचा की टर्मिनेटर।

आज साला सब कुछ है। ख़ुद का कमरा भी, शर्ट बाहर निकालने की आज़ादी भी और खुला मैदान भी। लेकिन कुछ था जो साला अब नहीं है। पैसे जमा करने के बाद जब गुल्लक फोड़ा जाता है तो एक साथ कितने पैसे मिलते हैं। लेकिन अपन को हमेशा गुल्लक फूटने का मलाल रहता है। पैसे नहीं चाहिए अपने को, बस वो गुल्लक चाहिए, बस वो गुल्लक।

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शीर्षक – ” आखिर एक दिन में ऐसा हुआ क्या? “

सुबह आज बदली सी थी, रंगोली के गानों की जगह समाचार आ रहा था। हमे लगा t.v. में कोई परेशानी है तो पड़ोस में चले गये। आज शायद सारा मोहल्ला रंगोली नही समाचार ही देखने मे मगन था। हम कुछ बच्चे ही थे, जो इसे परेशान थे। बड़े भैया जो अमूमन t. v. पर रंगोली के गाने बाहर से सुनते थे, वो आज t. v. के सामने से हटने का नाम नही ले रहे। आखिर एक दिन में ऐसा हुआ क्या?हम 7-8 साल के बच्चे थे। जिन्हें गर्मी में ही आजादी होती थी t. v. देखने की लेकिन आज वो भी नही थी। अब t. v. देखना मुश्किल था तो इसे समझना जरूरी था, आखिर एक दिन में ऐसा हुआ क्या?सुबह तो कट गई जैसे-तैसे, दोपहर आते -२ हालात और खराब हो चले। जहाँ भैया-दीदी सब इकठ्ठा हो कर गर्मियों में हल्ला करते थे, यहाँ तक कि आंटी को आ कर डाटना पड़ता था। वो भैया-दीदी आज हमारे शोर पर हमें डाट रहे थे। आखिर एक दिन में ऐसा हुआ क्या?शाम को मैदान में लगने वाली भीड़, आज वहाँ न थी। शायद ये सब किसी खास मौके के लिए हो रहा हो लेकिन सारा शहर ही शांत था। आज दुकानों के पास बैठे लोगों में हँसी ठिठोली नही हो रही थी। उनके हाव-भाव से लग रहा था कि वो कुछ खास बातें कर रहे थे। हम बच्चे समझ नही पा रहे थे, आखिर एक दिन में ऐसा हुआ क्या?वो शाम की शांति दुसरे दिन खत्म हो गई। सारा शहर में शोर शराबे से भर गया। कल ही तो शाम को समाचार में बताया था हमारे शहर का एक जवान शहीद हो गया। कई शहरों में यही हाल था। आखिर एक दिन में ऐसा हुआ क्या?_ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _ _- – – — – – – – – ^ – – – – – – – – ^- – – – – – – – – -ये जंग थी, जिसे बचपन मे हम कभी नही समझ पाये। हम इसे भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट मैच की तरह ही समझ पाए।Instagram – @krishna.67______________ ◆ ________________

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“रामलीला”

घंटाघर के रामलीला हाल में मंडली बेचैन बैठी थी। लगभग 17-18 लोग थे मंडली में। सबके मन में बस यही उथल पुथल मची थी कि रामलीला में राम का किरदार कौन निभाएगा? वैसे तो ड्रामेबाजों में टैलेंट की कोई कमी नही थी पर कुछ ऐसे थे जो हुनर के साथ साथ थोड़ा पऊवा भी रखते थे। पऊवा मल्लब जुगाड़। राम के रोल के लिए सबने बारी बारी अपना आडीशन दिया और राम सबको उनका उनका किरदार उनकी ऐक्टिंग के हिसाब से मिलने लगा।

हुवा यूँ के राजेश ने कहा कि “चाहे जिसका डेमो करा लो सर! राम तो हमही बनेंगे।” मंडली प्रमुख रियाज़ सर बोले “कर पाओगे तुम? होगा तुमसे? हमेशा तो नशे में रहते हो! हज़ारों की भीड़ होगी! सिटी चैनल पे लाइव टेलिकास्ट होगा! कहीं ऊँच नीच हो गयी तो तुम्हारे बाउजी की नाक कट जाएगी!”
“कुछ भी हो रियाज़ गुरुजी! राम तो हम ही बनेंगे!” (राजेश ने बोतल में से शराब का घूँट लेते हुए कहा)

राजेश कटनी के विधायक क्राइम मास्टर गोगो का एकलौता लड़का था। शराबी, कबाबी,अय्याशी, मारपीट, लड़ाई झगड़ा, गुण्डई और लड़कियों को छेड़ना मल्लब भविष्य के एक आदर्श विधायक और वर्तमान में एक विधायक के आदर्श पुत्र होने के सारे गुण विद्दमान थे उसमें। पर इन सब से हट के दो चीज़ें और थीं जो कहानी में इंटरेस्ट लाने वाली थी।

पहली चीज़ थी ड्रामा। राजेश गब्बर सिंह का बहुत बड़ा फ़ैन था। बचपन से ही शीशे के सामने “कितने आदमी थे? और अब तेरा क्या होगा कलिया?” की प्रेक्टिस करते हुए बड़ा हुआ था और ऐक्टिंग का भूत सवार था।

दूसरी थी ज्योति। जो उसी ड्रामा मंडली की छात्रा थी। चूँकि ज्योति को सीता का रोल पहले ही मिल गया था तो राम के रोल के लिए गगन का ज़िद्दियाना लाज़मी था।

रियाज़ सर जो बरसों से सकुशल रामलीला कराते आरहे थे इस बार नर्वस हो गए। वो राम बनाना चाहते थे सुधीर को। जी हाँ सुधीर। सुधीर को बस ये जान लीजिए कि वो साक्षात शर्मा जी का लौंडा वाला पीस था। हाँ शर्मा जी का वही लड़का जिसके कारण अक्सर अपने घर पर आपको ताने और कभी कभी तो लात भी पड़ जाती है। स्कूल कोलेज में 99%+ नंबर, खेल कूद में तेंदुलकर, ऐक्टिंग में जैक स्पैरो! नहीं नहीं कैप्टेन जैक स्पैरो!

तो अंत में विधायक क्राइम मास्टर गोगो के दबाव में आकर रियाज़ साहब को राम का किरदार राजेश को देना ही पड़ गया। और सीता का किरदार मिला ज्योति को। ज्योति वही लड़की थी जिसे गगन पसंद करता था पर जब वो सामने आती तो उसके अंदर का भलमनई जाग जाता और बेचारा कुछ कह ना पाता। बस नज़रें झुका के शर्मा जाता।

रुकिए रुकिए यहाँ पे रामलीला में एक प्रेम त्रिकोणीय शृंखला की अलगय लीला रची जा रही थी। जिसमें राजेश, ज्योति और सुधीर थे। राजेश को ज्योति से प्रेम था और ज्योति को सुधीर से मोहब्बत। ख़ास बात ये कि सुधीर को इस बात की भनक भी नही थी कि ज्योति उसे मन ही मन अपना राम मानती थी। राजेश ज्योति के कारण मंडली में रोज आता और ज्योति सुधीर के कारण। चूँकि सुधीर तो शर्मा जी के लौंडे की फ़ोटोकापी था तो रोज़ टाइम से पहुँचना उसके ख़ून में था।

रिहर्सल चालू हुआ और तैयारीयों ने ज़ोर पकड़ लिया। राजेश अपनी ठाठ में लेट आता जिसके कारण ढंग से रिहर्सल भी ना हो पाती। रियाज़ सर ने ख़ुद को इतना बेवस पहले कभी ना पाया था। पिछले सत्ताईस सालों से ख़ुद लक्षमण का किरदार बख़ूबी निभाते आरहे थे रियाज़ सर। पर इस बार का लक्षमण था इस्तियाक। इस्तियाक रियाज़ साहब का छोटा बेटा था और हरमपने में राजेश की टक्कर का।

राजेश और इश्तियाक़ की ख़ूब बनती। दोनो साथ में दारू मुर्ग़ा चाँपते और लफ़ंगई करते। ये उनकी रोज़ की दिनचर्या थी। जब कभी राजेश का मूड ख़राब होता इश्तियाक़ “ज्योति भाभी ज्योति भाभी” बोल के राजेश को पिघला देता।

सीन शुरू हुआ! सब अपने अपने गेटप में थे। राजेश एक हाथ में धनुष और दूसरे हाथ में कमंडल लिए खड़ा था। इश्तियाक़ ने कमंडल को ओल्ड मोंक से भर दिया था। सुधीर अमरीस पुरी का नौ मुखौटा टाँगे रावण बना खड़ा था। राजेश ज्योति को देख के डाईलॉग मारता और ज्योति सुधीर को देख के।
सीन पहुँचा सीता माता के किडनैपिंग पे। आज राजेश सीता के किडनैपिंग पे उतनी ही दुखी था जितना भगवान राम हुए थे। सीन के बीच में राजेश भावुक हो था और उसकी आँख से आँसू निकलने लगे। इश्तियाक़ से देखा नही गया और उसने “ज्योति भाभी ज्योति भाभी” कह के राजेश का दिल हल्का किया और असल ज़िंदगी में भी लक्षमण साबित हुआ।
जैसे तैसे रामलीला अपने क्लाईमैक्स पे पहुँची। आज जनता बेहद हंस रही थी। नए उमर के बच्चों की रामलीला सच में एकदम नैसर्गिक थी। युद्ध भूमि में राम के भेष में राजेश और रावण के भेष में सुधीर आमने सामने थे।

राजेश कमंडल से घूँट मार मार के राक्षसों को मुक्ति दे रहा था। पर आज ज्योति रूपी सीता किड्नैप होके ख़ुश थी। आज वो रावण से छुटकारा नही पाना चाहती थी। लक्षमण राक्षसों पर निशाना साधने में व्यस्त था और विभीषण अपने विभीषणपना दिखाने का इंतज़ार कर रहा था।

रोते गाते लड़खड़ाते हुए युद्ध भूमि में राजेश ने रावण की तरफ़ पहला तीर मारा। तीर ऐसा घूमा जो कि हनुमान जी की तरफ़ जा पहुँचा। बच्चे गुदगुदा के हसने लगे। पब्लिक पेट पकड़ के ठहाके मारने लगी। लोगों को लगा इस बार कोमेडी रामलीला है। कमंडल से एक और घूट लेने के बाद राजेश ने कहा “कितने आदमी थी?” लोग फिर हसने लगे। इतने में लक्षमण में असली लाइन याद दिलाई और कहा “ज्योति भाभी ज्योति भाभी”
राजेश मुस्कुराया। ताव से तीर कमान में चढ़ाया और रावण की तरफ़ निशाना तान के बोला “तुम्हारा अंत आगया है दुष्ट” और धागा खींच के छोड़ दिया! इस बार तीर कमान से निकला ही नही। बिलकुल वैसे ही जैसे पिछली बार मोदी जी से फुस्स हुआ था। विभिसण को लगा उसका समय आगया है और उसने राम के कान में जाके कुछ खुसुर फुसुर की! राजेश फिर से मुस्कुराया और रावण की तरफ़ तीर तान के बोला
“ठायं ठायं!”
“अरी मोरी मईया! मारि डाला रे..” कहकर भईया रावण वहीं ओलर गया।
मरने से पूर्व उसने भगवान राम से क्षमा माँगी और मुक्ति के लिए आग्रह किया। राजेश ने कमंडल से चूल्लु भर पानी(मदिरा रूपी गंगाजल) निकाल रावण को पिलाया। और सुधीर वहीं खाँसते खाँसते बिहोश हो गया। रावणवा धन्य हुआ। सत्य की जीत हुई। अधर्म का नाश हुआ।
पर्दा गिरता है..
हर तरफ़ से आवाज़ आने लगी जय श्री राम! जय श्री राम। क्राइम मास्टर गोगो की आँखो में आँसू आगया। उसने मंडली के सभी सदस्यों को भेंट दी और तारीफ़ की

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बच्चे दिवाली तक ठायं ठायं करते रहे। ठायं ठायं से उनके अम्मा बाबू के पैसे भी बच गए। धुएँ वाले प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण दोनो का नाश हुआ।
रावण अधर्मी था! पापी था। कुंठित था। घमंडी था। बहुत आसान है रावण बन जाना। राम बनना मुश्किल है। असम्भव है। पता नही लोग राम पे कैसी उँगली उठा देते हैं जिन्होंने अपनी मर्यादा से परे कुछ भी नही किया। जिन्होंने हर स्थिति सम्हाली। घर, सिंहासन, वचन और पत्नी सब।
आसान होता है अपने सुख के लिए किसी की पत्नी का अपहरण करके फिर महान होने का ढोंग रचना। आसान नही है राम बन जाना। परीक्षा देना और लेना। आहुति देना और भगवान बन जाना।
बाक़ी दशहरा मुबारक।
पकड़ो पकड़ो, ठायं ठायं!
जय श्री राम जय श्री राम।
~Shubham Srivastava

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“कन्या भोज”

उस दौर में जब हम चार पाँच साल के होते थे, तब बहन लोगों के साथ हम भी भैरो बाबा बनके लटक जाते थे कन्या भोज खाने। पूरे मोहल्ले में घूम घूम खाते थे। कहीं आधी पूड़ी तो कहीं पूरी। पूड़ीयों कि संख्या सब्ज़ी के टेस्ट पर निर्भर करती थी।

छोटे छोटे मुँह और छोटे से आयतन वाले पेट में जब आधा तिहा पूड़ी जाती तो जैसे परमानंद की अनुभूति होती। खाते खाते डकारें आने लगती पर ठूसने में कोई कमी ना रहती।

जब बच्चे थे, तो कहीं भी कोने में बैठ जाते थे। चूँकि नौरात्र आते आते ठण्डी होने लगती थी, तो ज़ुकाम अपने आप पकड़ लेता था। तो एक कौर पूड़ी खाना और सुड़ुप के बहती नाक अंदर को खींच लेना और ये कालजयी टास्क इस नज़ाकत से करना कि कोई देख ना ले ये भी अपने आप में एक विश्वयुद्ध हुआ करता था।

चने की सब्ज़ी दिल जीत लेती थी। मल्लब जैसा मसाला वैसा मज़ा। जैसी ग्रेवी वैसा आनंद। कुछ कंजूस लोग चने में आलू मिला देते थे। वहाँ बस एक ही ख़याल आता था कि साला जल्दी उठें और दूसरी आंटी के यहाँ पहुँचे।

मेन्यू सबका एक सा ही होता था। बस वो अंत वाला गिफ़्ट भिन्न भिन्न। एक सभी देवी देवताओं की आरती वाली किताब और ग्यारह(ये रेट 2003-04 का था) रुपए विदाई मिलती थी। वो भी सिर्फ़ कन्याओं को। हमारे जैसे पिछलग्गुओं को पूड़ी चना और खीर में निपटा दिया जाता था। और ये सबसे दुखद होता था।
अगले दिन सुबह से ही पेट गुड़गुड़ करने लगता और सारा खाया पिया जैसे तैसे निकल ही आता। पूड़ियों से प्रेम है। फिर चाहे सब्ज़ी चना की हो या कद्दू, पनीर हो या मशरूम! हाँ सर्दियों में गोभी से जी भर जाता था पर शिमलामिर्च पड़ी हो तो करेजे को ठंडक मिलती।

बाक़ी चाहे आस्तिक हो या नास्तिक। भण्डारे के खाने से जी नही भरता कभी। कुछ तो अलग होता ही है यार। इतना बरस गुज़र गया पर अभी तक वो बिन बुलाए कन्याभोज खाना दिल ख़ुश कर जाता है।
दरसल हम छोटकऊ लोगों के लिए वो किसी ग्रैण्डपार्टी से कम नही होता था। उसके बाद “कटनी-कैमोर के दुर्गा पूजा का मेला और दशहरा” तो होली-दिवाली जैसा फ़ेवरेट त्योहार होता था।
कन्या भोज खाने के बाद सभी छुटकुवों का पेट अनिवार्य रूप से गड़बड़ा जाता था और हर रास्ते से खाया हुआ खाना निकलने का प्रयास करता था।
हाय दइया पुराने दिन याद आग़ये यार। आहा!

नवमी मुबारक।

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The Childhood

Childhood is the best and favourite stage of everyone, mine too. Childhood is all about innocence, purity, giving and taking love. It’s the stage where one doesn’t have to wonder what people will say you know — char log kya kahenge?
Here no one is a lost or found case but just in the building for the initial cause.
Childhood stage is pure
To our all pains it’s the cure
Going down the memory lane
Breaking the societal chain
Smiling, laughing and giggling
It’s my childhood jingling
It lingers inside me
Making me smile everytime light is dim.

The inner me, the child me is stupid, crazy not like this me whose practical, blunt and cold. Whenever I’m free I go down the lane of my memory everything makes me smile as they have seen the real and innocent ME. I remember those days when I used to have her beside me. She’s my best friend.

We used to do crazy stuff like from whistling in class to eating during lectures. They say when you go to other place take only good memories with you and I did the same . When I entered into my adulthood I took beautiful memories of my childhood with me. I still remember we were a group of seven people actually seven crazy monkeys…

We used to ring the bells of our neighbourhood and run like our life depends on it. I’m happy I didn’t grow up in digital world rather I was brought up when it used to be all about love and loving. Even the smallest of happiness used to be turn into big occasions .

When we used to sit together under open sky when light used to go rather than being in darkness or over thinking.

When the confessions were made by paper plane not sarahah. I’ve grown when not two screens but love letters used to be the witnesses of love. Where we used to go to school daily only to see our crush, when it used to be all about staring and gazing rather than waiting and wanting. It was the time when parents used to spend more time with their child teaching them and telling stories.

I never left my childhood and my childhood never left me. It lingers inside me, it is my solace, a serene and a comfortable place. Whenever I’m tired from running in this race, I take some time and travel back, back to those trees where I first fell and laughed like a maniac, to those walls where I used to scribble and those which helped me to find the artist, those pictures stored in stacks of albums making me smile.


“childhood is about innocence and fun,
Not about this everyday ru

n”

– kritka